कविता संग्रह >> मेरी इक्यावन कविताएँ मेरी इक्यावन कविताएँअटल बिहारी वाजपेयी
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अटल जी की इक्यावन कविताएँ....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
जीता-जागता राष्ट्रपुरुष
भारत ज़मीन का टुकड़ा नहीं, जीता-जागता राष्ट्रपुरुष है। हिमालय इसका
मस्तक है, गौरी शंकर शिखा है। कश्मीर किरीट है, पंजाब और बंगाल दो विशाल
कंधे हैं। विन्ध्याचल कटि है, नर्मदा करधनी है। पूर्वी और पश्चिमी घाट, दो
विशाल जंघाएँ हैं। कन्याकुमारी इसके चरण हैं, सागर इसके पग पखारता है।
पावस के काले-काले मेघ इसके कुंतल केश हैं। चाँद और सूरज इसकी आरती उतारते
हैं। यह वन्दन की भूमि है, यह अर्पण की भूमि है, अभिन्नदन की भूमि है। यह
तर्पण की भूमि है। इसका कंकर-कंकर शंकर है, इसका बिंदु-बिंदु गंगाजल है।
हम जिएँगे तो इसके लिए, मरेंगे तो इसके लिए।।
(बहुचर्चित भाषण से)
अटल बिहारी वाजपेयी
अटल बिहारी वाजपेयी
वज्र से भी कठोर अडिग संकल्प-सम्पन्न राजनेता श्री अटल बिहारी बाजपेई के
कुसुम कोमल हृदय से उमड़ पड़ने वाली कविताएँ गिरि-हृदय से फूट निकलने वाली
निर्झरियों के सदृश एक ओर जहाँ अपने दुर्दान्त आवेग से किसी भी
अवगाहनकर्ता को बहा ले जाने में समर्थ हैं, वहीं दूसरी ओर वे अपनी
निर्मलता, शीतलता और प्राणवत्ता से जीवन के दुर्गम पथ के राहियों की प्यास
और थकान को हरकर नई प्रेरणा की संजीवनी प्रदान करने की क्षमता से भी
सम्पन्न हैं। इनका सहज स्वर तो देशभक्तिपूर्ण शौर्य का ही है; किन्तु
कभी-कभी वन सर्जना की वेदना से ओतप्रोत करुणा की रागिनी को भी ये ध्वनित
करती हैं।
कवि और मैं
कविता मुझे विरासत में मिली है। मेरे पिता पं. कृष्ण बिहारी बाजपेयी,
ग्वालियर रियासत के, अपने जमाने के जाने-माने कवियों में थे। वह ब्रज भाषा
और खड़ी बोली दोनों लिखते थे। उनकी लिखी ‘ईश्वर
प्रार्थना’
रियासत के सभी विद्यालयों में सामूहिक रूप से गाई जाती थी। उनके द्वारा
रचित कवित्त और सवैया मुझे अभी तक याद हैं। पितामह पं. श्यामलाल वाजपेयी,
यद्यपि स्वयं कवि नहीं थे, किंतु संस्कृत और हिंदी दोनों भाषाओं के
काव्य-साहित्य में उनकी गहरी रुचि थी। दोनों भाषाओं के सैकड़ों छन्द
उन्हें कंठस्थ थे और बातचीत में उन्हें उद्धृत करते रहते थे। परिवार के
साहित्यिक वातावरण का प्रभाव भाइयों पर भी पड़ा। सबसे बड़े भाई पं. अवध
बिहारी वाजपेयी कविता करने लगे।
उन दिनों कवि-सम्मेलनों की धूम थी, किन्तु आज की तरह कवि-सम्मेलनों में फूहड़ हास्य और चुटकलेबाजी का बोलबाला नहीं था। हास्य-विनोद का शिष्ट और शालीन होना जरूरी था। वीर और श्रृंगार रस की कविताएँ पसन्द की जाती थीं। समस्या-पूर्ति की शैली कवियों को एक विषय पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए बाध्य करती। रचनाएँ छन्दबद्ध होतीं। तब तक अतुकान्त तथा रबड़ छन्द में लिखी कविताओं का इतना प्रचलन नहीं था। सर्वश्रेष्ठ समस्या-पूर्ति के लिए पुरस्कार दिया जाता। एक बार कवियों को ‘तिहारी’ समस्या की पूर्ति करनी थी। पिता पं. कृष्ण बिहारी बाजपेयी ने निम्नलिखित छन्द पढ़ा :
उन दिनों कवि-सम्मेलनों की धूम थी, किन्तु आज की तरह कवि-सम्मेलनों में फूहड़ हास्य और चुटकलेबाजी का बोलबाला नहीं था। हास्य-विनोद का शिष्ट और शालीन होना जरूरी था। वीर और श्रृंगार रस की कविताएँ पसन्द की जाती थीं। समस्या-पूर्ति की शैली कवियों को एक विषय पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए बाध्य करती। रचनाएँ छन्दबद्ध होतीं। तब तक अतुकान्त तथा रबड़ छन्द में लिखी कविताओं का इतना प्रचलन नहीं था। सर्वश्रेष्ठ समस्या-पूर्ति के लिए पुरस्कार दिया जाता। एक बार कवियों को ‘तिहारी’ समस्या की पूर्ति करनी थी। पिता पं. कृष्ण बिहारी बाजपेयी ने निम्नलिखित छन्द पढ़ा :
केते बेहाल परे चहुँधा अरु केते पुकारें दवारी दवारी।
केते कलेजहिं काढ़ि मलें अरु केते न देह न गेह सम्हारी।
कवि कृष्ण कहाँ लो कहौं कटुता मिटि जाति अनेकन के हिय प्यारी।
अंजनि आँजि के लीहो कहा, यह नैन की तेग दुधारी तिहारी।।
केते कलेजहिं काढ़ि मलें अरु केते न देह न गेह सम्हारी।
कवि कृष्ण कहाँ लो कहौं कटुता मिटि जाति अनेकन के हिय प्यारी।
अंजनि आँजि के लीहो कहा, यह नैन की तेग दुधारी तिहारी।।
बड़े भाई ने पितामह पं. श्यामलाल वाजपेयी की प्रशंसा में जो कवित्त लिखा
वह इस प्रकार था :
श्यामलाल वाजपेयी बाबा जो विदित नाम,
पण्डित प्रचण्ड जाकी प्रतिभा प्रकासी है।
पाठन-पठन में बिताय तीन पन दीन्हें,
आसपास जासु योग्यता की धाक खासी है।
गुनिन को गाहक, गुमानिन गुमान भरो,
साधु, सन्त, भक्तन की सेवा अभिलासी है।
श्रेष्ठ कान्यकुब्ज वंश अवतंस ‘अवधेश’,
आगरा जिले को सुबटेसुर निवासी है।।
पण्डित प्रचण्ड जाकी प्रतिभा प्रकासी है।
पाठन-पठन में बिताय तीन पन दीन्हें,
आसपास जासु योग्यता की धाक खासी है।
गुनिन को गाहक, गुमानिन गुमान भरो,
साधु, सन्त, भक्तन की सेवा अभिलासी है।
श्रेष्ठ कान्यकुब्ज वंश अवतंस ‘अवधेश’,
आगरा जिले को सुबटेसुर निवासी है।।
परिवार के अनुकूल वातावरण में, संगी-साथियों की देखादेखी, मैंने भी तुक से
तुक भिड़ाना शुरु कर दिया। कवि-सम्मेलनों में जाने लगा। पहले श्रोता के
रूप में और बाद में ‘उदीयमान’ किशोर कवि के रूप में।
अपनी
पहली तुकबन्दियाँ मुझे याद नहीं हैं, जिस कविता का स्मरण है वह
‘ताजमहल’ पर लिखी गई थी। कविता लीक से हटकर थी और
उसमें
‘ताज’ के सौन्दर्य पक्ष का वर्णन न होकर उसका निर्माण
कितने
शोषण के बाद हुआ, इसका चित्रण था। वह कविता हाई स्कूल की पत्रिका में छपी
थी।
कुछ मित्र कहते हैं, यदि मैं राजनीति में न आता तो चोटी का कवि होता। चोटी-एड़ी की बात मैं नहीं जानता, किन्तु इतना अवश्य है कि राजनीति ने मेरी काव्य-रस धारा को अवरुद्ध किया है। फिर भी, मैं उसे पूरी तरह अपने उदीयमान कवि को म्रियमाण करने के लिए दोषी नहीं ठहराता। कानून की पढ़ाई आधी छोड़कर, जब से मैंने लखनऊ से प्रकाशित ‘राष्ट्रधर्म’ मासिक पत्रिका का सम्पादन भार सँभाला, तभी से कविता लिखने के लिए समय निकालना कठिन हो गया। काव्य-रचना न केवल समय माँगती है, बल्कि उपयुक्त वातावरण का तकाजा भी करती है। यदि प्रकाशन सामग्री प्रेस में भेजने की जल्दी है, प्रेस का मैनेजर सामग्री के लिए सिर पर खड़ा है, निश्चित समय तक पत्रिका का प्रकाशन जरूरी है, तो फिर कल्पना की ऊँची उड़ाने भरना और लेखनी को अभ्यंतर के रस में गहरा डुबोकर, उमड़ते-घुमड़ते भावों को कागज पर उतारने का समय कहाँ रहता है।
साप्ताहिक और दैनिक पत्र के सम्पादन के नाते कविता और भी दूर चली गई। मन में जो भाव उठते थे, उन्हें लेखों में व्यक्त कर देता था। बाद में जब राजनीति में आया तब कविता क्या, गद्य लेखन भी कठिन हो गया। सारी ऊर्जा भाषणों में खर्च होने लगी। 1957 में जब पहली बार लोकसभा का सदस्य चुना गया, भाषण ही अभिव्यक्ति का प्रमुख साधन बन गया। यदाकदा ही लेख या कविता लिखने का अवसर निकाल पाता।
सच्चाई यह है कि कविता और राजनीति साथ-साथ नहीं चल सकतीं। ऐसी राजनीति, जिसमें प्रायः प्रतिदिन भाषण देना जरूरी है और भाषण भी ऐसा जो श्रोताओं को प्रभावित कर सके, तो फिर कविता की एकान्त साधना के लिए समय और वातावरण ही कहाँ मिल पाता है। मैंने जो थोड़ी-सी कविताएँ लिखी हैं, वे परिस्थिति सापेक्ष हैं और आसपास की दुनिया को प्रतिबिम्बित करती हैं। अपने कवि के प्रति ईमानदार रहने के लिए मुझे काफी कीमत चुकानी पड़ी है, किन्तु कवि और राजनीतिक कार्यकर्ता के बीच मेल बिठाने का मैं निरन्तर प्रयास करता रहा हूँ। कभी-कभी इच्छा होती है कि सब कुछ छोड़-छाड़कर कहीं एकान्त में पढ़ने, लिखने और चिन्तन करने में अपने को खो दूँ, किन्तु ऐसा नहीं कर पाता। दुविधा से भरे जीवन के सात दशक बीत गए, जो कुछ बचे-खुचे हैं वे भी इसी तरह बीत जाएँगे।
मुझे आशा है कि मेरी सभी काव्य-रचनाओं को एक स्थान पर देखकर प्रेमी पाठक प्रसन्न होंगे। इधर-उधर बिखरी कविताओं को समेटकर जिन्होंने इस संग्रह का स्वरूप दिया है, उन सबके प्रति मैं आभार प्रकट करता हूँ।
कुछ मित्र कहते हैं, यदि मैं राजनीति में न आता तो चोटी का कवि होता। चोटी-एड़ी की बात मैं नहीं जानता, किन्तु इतना अवश्य है कि राजनीति ने मेरी काव्य-रस धारा को अवरुद्ध किया है। फिर भी, मैं उसे पूरी तरह अपने उदीयमान कवि को म्रियमाण करने के लिए दोषी नहीं ठहराता। कानून की पढ़ाई आधी छोड़कर, जब से मैंने लखनऊ से प्रकाशित ‘राष्ट्रधर्म’ मासिक पत्रिका का सम्पादन भार सँभाला, तभी से कविता लिखने के लिए समय निकालना कठिन हो गया। काव्य-रचना न केवल समय माँगती है, बल्कि उपयुक्त वातावरण का तकाजा भी करती है। यदि प्रकाशन सामग्री प्रेस में भेजने की जल्दी है, प्रेस का मैनेजर सामग्री के लिए सिर पर खड़ा है, निश्चित समय तक पत्रिका का प्रकाशन जरूरी है, तो फिर कल्पना की ऊँची उड़ाने भरना और लेखनी को अभ्यंतर के रस में गहरा डुबोकर, उमड़ते-घुमड़ते भावों को कागज पर उतारने का समय कहाँ रहता है।
साप्ताहिक और दैनिक पत्र के सम्पादन के नाते कविता और भी दूर चली गई। मन में जो भाव उठते थे, उन्हें लेखों में व्यक्त कर देता था। बाद में जब राजनीति में आया तब कविता क्या, गद्य लेखन भी कठिन हो गया। सारी ऊर्जा भाषणों में खर्च होने लगी। 1957 में जब पहली बार लोकसभा का सदस्य चुना गया, भाषण ही अभिव्यक्ति का प्रमुख साधन बन गया। यदाकदा ही लेख या कविता लिखने का अवसर निकाल पाता।
सच्चाई यह है कि कविता और राजनीति साथ-साथ नहीं चल सकतीं। ऐसी राजनीति, जिसमें प्रायः प्रतिदिन भाषण देना जरूरी है और भाषण भी ऐसा जो श्रोताओं को प्रभावित कर सके, तो फिर कविता की एकान्त साधना के लिए समय और वातावरण ही कहाँ मिल पाता है। मैंने जो थोड़ी-सी कविताएँ लिखी हैं, वे परिस्थिति सापेक्ष हैं और आसपास की दुनिया को प्रतिबिम्बित करती हैं। अपने कवि के प्रति ईमानदार रहने के लिए मुझे काफी कीमत चुकानी पड़ी है, किन्तु कवि और राजनीतिक कार्यकर्ता के बीच मेल बिठाने का मैं निरन्तर प्रयास करता रहा हूँ। कभी-कभी इच्छा होती है कि सब कुछ छोड़-छाड़कर कहीं एकान्त में पढ़ने, लिखने और चिन्तन करने में अपने को खो दूँ, किन्तु ऐसा नहीं कर पाता। दुविधा से भरे जीवन के सात दशक बीत गए, जो कुछ बचे-खुचे हैं वे भी इसी तरह बीत जाएँगे।
मुझे आशा है कि मेरी सभी काव्य-रचनाओं को एक स्थान पर देखकर प्रेमी पाठक प्रसन्न होंगे। इधर-उधर बिखरी कविताओं को समेटकर जिन्होंने इस संग्रह का स्वरूप दिया है, उन सबके प्रति मैं आभार प्रकट करता हूँ।
अटलबिहारी वाजपेयी
संपादकीय
श्री अटल बिहारी वाजपेयी की कविताएँ बचपन से ही मुझे प्रिय रही हैं। कई
कविताएँ मिडिल स्कूल के दिनों में कंठस्थ भी की थीं। अन्त्याक्षरी
प्रतियोगिताओं में उन्हें सुनाता था। स्नातक कक्षाओं में आते-आते
पत्र-पत्रिकाओं में भी यदा-कदा उनकी कविताएं पढ़ने को पा जाता। जब
थोड़ा-बहुत लिखने और छपने लगा तो कई श्रेष्ठ पत्रिकाओं में मुझे अटल जी के
साथ छपने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उनकी कविताएँ जहाँ भी मुझे मिलतीं, मैं
एकत्रित कर लेता।
जब मैंने उनसे काव्य-संग्रह की बात कही तो उन्होंने टाल दिया। पर मैं हिम्मत नहीं हारा। आखिर उन्होंने अनुमति दे दी। उनकी कविताएँ मुझे कुछ ऐसे लोगों से सुनने को मिली जिनको कई की कई कविताएँ पूरी कंठस्थ हैं। जब मैंने उनकी इक्यावन कविताएँ एकत्रित कर लीं तो उन्होंने दिल्ली और लखनऊ में कई बैठकों में उन कविताओं की शुद्धता की पूरी-पूरी छानबीन की। पाण्डुलिपि की तैयारी में, मैंने जब-जब उनसे समय माँगा उन्होंने दिया। उन क्षणों में मुझे कभी यह भान न हुआ कि मैं एक शीर्ष राजनेता के पास बैठा हूँ। मुझे सदैव यही प्रतीत होता रहा कि पुरानी पीढ़ी के किसी रचनाकार से मिल रहा हूँ। उनसे साहित्यकारों के अनेक अनछुए संस्मरण भी सुनने को मिले।
कवि की प्राप्त सभी कविताओं को मैंने रचना की प्रकृति, तासीर और तेवर को देखकर चार भागों में विभक्त किया है—अनुभूति के स्वर राष्ट्रीयता के स्वर, चुनौती के स्वर तथा विविध स्वर। ‘अनुभूति के स्वर’ में कवि की नई तर्ज पर नए कथ्य और नए शिल्प के साथ दार्शिनिकता के पुट से युक्त रचनाएँ हैं। ‘राष्ट्रीयता के स्वर’ में राष्ट्रभक्ति, राष्ट्रप्रेम और राष्ट्राराधन की रचनाएँ रखी गई हैं। ‘चुनौती के स्वर’ में वे कविताएँ हैं जिनमें राष्ट्र के पौरुष और गौरव के वर्णन के साथ उन सभी को चुनौतियाँ दी गई हैं, जो राष्ट्र मान-मर्यादा में बट्टा लगाना चाहते हैं। ‘विविध स्वर’ में उन विताओं को रखा गया है जिसमें समय-समय पर कवि ने अपने व्यक्तिगत मन की तरंगों को टाँका है। परिशिष्ट में कवि-परिचय और काव्य-परिचय प्रस्तुत किया गया है। संग्रह की इस पुष्पवाटिका के सारे पुष्प कविवर अटल जी के हैं, मैं तो मात्र माली हूँ। मैं उनके आशीर्वाद का ही पात्र बना रहना चाहता हूँ।
इस संग्रह की तैयारी में प्रो. विष्णुकान्त शास्त्री द्वारा संपादित कृति ‘अमर आग है’ तथा श्रीयुत दीनानाथ मिश्र द्वारा संपादित ‘कैदी कविराय की कुण्डलियाँ’ पुस्तक से जो सहायता मिली है, उसके लिए मैं दोनों बंधुओं के प्रति आभार प्रकट करता हूँ। ‘कादम्बनी’, ‘राष्ट्रधर्म’, ‘धर्मयुग’ ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ तथा ‘नवनीत’ के संपादकों को भी मैं धन्यावाद देता हूँ; क्योंकि इन पत्रिकाओं से भी मैंने सहायता ली है। बंधुवर शिवकुमार जी ने समय-समय पर सामग्री जुटाने में मेरी सहायता की है, मैं उनके प्रति आभार व्यक्त करता हूँ। यदि कृति पाठकों को पसंद आएगी तो इसे मैं अपना सौभाग्य मानूँगा।
जब मैंने उनसे काव्य-संग्रह की बात कही तो उन्होंने टाल दिया। पर मैं हिम्मत नहीं हारा। आखिर उन्होंने अनुमति दे दी। उनकी कविताएँ मुझे कुछ ऐसे लोगों से सुनने को मिली जिनको कई की कई कविताएँ पूरी कंठस्थ हैं। जब मैंने उनकी इक्यावन कविताएँ एकत्रित कर लीं तो उन्होंने दिल्ली और लखनऊ में कई बैठकों में उन कविताओं की शुद्धता की पूरी-पूरी छानबीन की। पाण्डुलिपि की तैयारी में, मैंने जब-जब उनसे समय माँगा उन्होंने दिया। उन क्षणों में मुझे कभी यह भान न हुआ कि मैं एक शीर्ष राजनेता के पास बैठा हूँ। मुझे सदैव यही प्रतीत होता रहा कि पुरानी पीढ़ी के किसी रचनाकार से मिल रहा हूँ। उनसे साहित्यकारों के अनेक अनछुए संस्मरण भी सुनने को मिले।
कवि की प्राप्त सभी कविताओं को मैंने रचना की प्रकृति, तासीर और तेवर को देखकर चार भागों में विभक्त किया है—अनुभूति के स्वर राष्ट्रीयता के स्वर, चुनौती के स्वर तथा विविध स्वर। ‘अनुभूति के स्वर’ में कवि की नई तर्ज पर नए कथ्य और नए शिल्प के साथ दार्शिनिकता के पुट से युक्त रचनाएँ हैं। ‘राष्ट्रीयता के स्वर’ में राष्ट्रभक्ति, राष्ट्रप्रेम और राष्ट्राराधन की रचनाएँ रखी गई हैं। ‘चुनौती के स्वर’ में वे कविताएँ हैं जिनमें राष्ट्र के पौरुष और गौरव के वर्णन के साथ उन सभी को चुनौतियाँ दी गई हैं, जो राष्ट्र मान-मर्यादा में बट्टा लगाना चाहते हैं। ‘विविध स्वर’ में उन विताओं को रखा गया है जिसमें समय-समय पर कवि ने अपने व्यक्तिगत मन की तरंगों को टाँका है। परिशिष्ट में कवि-परिचय और काव्य-परिचय प्रस्तुत किया गया है। संग्रह की इस पुष्पवाटिका के सारे पुष्प कविवर अटल जी के हैं, मैं तो मात्र माली हूँ। मैं उनके आशीर्वाद का ही पात्र बना रहना चाहता हूँ।
इस संग्रह की तैयारी में प्रो. विष्णुकान्त शास्त्री द्वारा संपादित कृति ‘अमर आग है’ तथा श्रीयुत दीनानाथ मिश्र द्वारा संपादित ‘कैदी कविराय की कुण्डलियाँ’ पुस्तक से जो सहायता मिली है, उसके लिए मैं दोनों बंधुओं के प्रति आभार प्रकट करता हूँ। ‘कादम्बनी’, ‘राष्ट्रधर्म’, ‘धर्मयुग’ ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ तथा ‘नवनीत’ के संपादकों को भी मैं धन्यावाद देता हूँ; क्योंकि इन पत्रिकाओं से भी मैंने सहायता ली है। बंधुवर शिवकुमार जी ने समय-समय पर सामग्री जुटाने में मेरी सहायता की है, मैं उनके प्रति आभार व्यक्त करता हूँ। यदि कृति पाठकों को पसंद आएगी तो इसे मैं अपना सौभाग्य मानूँगा।
चन्द्रिका प्रसाद शर्मा
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